राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) की पहचान सिर्फ उसकी शाखाओं या गणवेश से नहीं, बल्कि उसकी वैचारिक आत्मा से जुड़ी है — जिसे उसकी प्रार्थना “नमस्ते सदा वत्सले मातृभूमे” में अभिव्यक्त किया गया है।
यह प्रार्थना न केवल संगठनात्मक अनुशासन का प्रतीक है, बल्कि यह संघ की सांस्कृतिक दृष्टि, मातृभूमि के प्रति भक्ति और राष्ट्रवाद की परिकल्पना को भी व्यक्त करती है।
100 वर्ष पूरे कर रहे संघ के इस सफर में यह प्रार्थना उसके केंद्र में रही है — और इस पर कई तरह की चर्चाएँ, विवाद और व्याख्याएँ होती रही हैं।
नमस्ते सदा वत्सले मातृभूमेत्वया हिन्दुभूमे सुखं वर्धितोऽहम्।महामंगलें पुण्यभूमे त्वदर्थेपतत्वेष कायो नमस्ते नमस्ते॥
अनुवाद:
“हे सदा वात्सल्य देने वाली मातृभूमि! तुझे नमस्कार।
हे हिन्दूभूमि! तेरे कारण मैं सुखपूर्वक विकसित हुआ हूँ।
हे महान मंगलमयी पुण्यभूमि! तेरे लिए यह शरीर अर्पित है — तुझे बारंबार नमस्कार।”
यह प्रार्थना मातृभूमि को ईश्वर के समान पूज्य मानती है और स्वयं को उसके लिए समर्पित करने की भावना जगाती है।
संघ इसे राष्ट्रभक्ति की आध्यात्मिक अभिव्यक्ति मानता है।
आरंभिक वर्षों में संघ की प्रार्थना मराठी मिश्रित थी — जिसमें स्थानीय सांस्कृतिक भावनाएँ थीं।
डॉ. हेडगेवार ने इसे अपनी शाखाओं में अपनाया, लेकिन जैसे-जैसे संघ राष्ट्रीय स्वरूप में बढ़ा, एक अखिल-भारतीय भाषा की आवश्यकता महसूस हुई।
संघ की राष्ट्रीय बैठक में निर्णय हुआ कि प्रार्थना संस्कृत में होगी, क्योंकि यह भारत की प्राचीन सांस्कृतिक भाषा है।
संस्कृत विद्वान नरहरी नारायणराव भिड़े ने “नमस्ते सदा वत्सले मातृभूमे” रची।
यह प्रार्थना संघ की शाखाओं में स्थायी रूप से अपनाई गई। आज भी, आरएसएस की हर शाखा का प्रारंभ या समापन इसी प्रार्थना से होता है।
संघ की विचारधारा में मातृभूमि को “देवता” की तरह देखा गया है — जिसे पुण्यभूमि और पितृभूमि कहा जाता है।
यह दृष्टिकोण सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का आधार है — जिसमें भारत एक धार्मिक नहीं, बल्कि आध्यात्मिक रूप से एकीकृत भूमि है।
गुरु गोलवलकर ने अपनी पुस्तक “We or Our Nationhood Defined” में लिखा था —
“राष्ट्र वह है जो मातृभूमि, संस्कृति और धर्म के साथ आत्मसात होता है।”
इस दृष्टिकोण में मातृभूमि की पूजा किसी धार्मिक अनुष्ठान की तरह नहीं, बल्कि एक वैचारिक समर्पण है।
संघ की इस प्रार्थना को लेकर कई आलोचनाएँ भी हुई हैं:
आलोचकों का कहना है कि “मातृभूमि की पूजा” एक धार्मिक प्रतीकवाद है, जो धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र की अवधारणा से मेल नहीं खाता।
संघ का उत्तर है कि यह पूजा किसी देवी-देवता की नहीं, बल्कि भारत के प्रति समर्पण की अभिव्यक्ति है।
प्रार्थना में प्रयुक्त “त्वया हिन्दुभूमे” को लेकर गैर-हिंदू समुदायों में आशंका व्यक्त की जाती है कि संघ भारत को “केवल हिंदुओं की भूमि” के रूप में प्रस्तुत कर रहा है।
संघ की व्याख्या है कि “हिन्दू” शब्द यहाँ “सांस्कृतिक पहचान” का प्रतीक है, न कि धर्म का।
कुछ विचारक मानते हैं कि संस्कृत भाषा आमजन से दूर है, जिससे संघ की प्रार्थना जनसुलभ नहीं बन पाती।
संघ इसे परंपरा और गौरव का प्रतीक मानता है।
संघ की शाखाओं में यह प्रार्थना अनुशासन, देशभक्ति और आत्म-त्याग की भावना को जगाने का माध्यम है।
संघ से प्रेरित संगठनों जैसे — भारतीय जनता पार्टी (BJP), विश्व हिन्दू परिषद (VHP), ABVP — में भी इस प्रार्थना की पंक्तियाँ अक्सर उद्धृत की जाती हैं।
यह प्रार्थना संघ की वैचारिक एकता का ध्वज बन चुकी है —
जहाँ भाषा, जाति, क्षेत्र से परे, सभी स्वयंसेवक एक स्वर में इसे गाते हैं।
संघ की प्रार्थना को तीन दृष्टियों से देखा जा सकता है:
आध्यात्मिक दृष्टि: मातृभूमि के प्रति समर्पण का प्रतीक।
सांस्कृतिक दृष्टि: भारत की प्राचीन परंपरा और संस्कृत भाषा का पुनर्स्मरण।
राजनीतिक दृष्टि: राष्ट्रवाद की परिभाषा को एक विशेष सांस्कृतिक रूप में प्रस्तुत करना।
जहाँ एक ओर यह प्रार्थना राष्ट्रीय एकता और अनुशासन का प्रतीक है, वहीं दूसरी ओर यह भारत की बहुलतावादी पहचान पर सवाल भी खड़े करती है।
“नमस्ते सदा वत्सले मातृभूमे” संघ की आत्मा है।
यह एक ऐसी कविता है जो राष्ट्रभक्ति को अध्यात्म से जोड़ती है — लेकिन इसका संदेश, व्याख्या और प्रभाव व्यक्ति की वैचारिक दृष्टि पर निर्भर करता है।
संघ के 100 वर्षों में यह प्रार्थना स्थिर रही है — परंतु इसका अर्थ हर युग में नए सिरे से परिभाषित होता रहा है।
The mainstream media establishment doesn’t want us to survive, but you can help us continue running the show by making a voluntary contribution. Please pay an amount you are comfortable with; an amount you believe is the fair price for the content you have consumed to date.
happy to Help 9920654232@upi