क्रान्तिकारी गतिविधियाँ डॉक्टर केशवराव जब नागपुर आये तो घर में उनके बड़े भाई महादेव शास्त्री रहते थे। घर के एक भाग में कुछ दिन पूर्व से श्री वामनराव धर्माधिकारी आकर रहे थे।

क्रान्तिकारी गतिविधियाँ 

डॉक्टर केशवराव जब नागपुर आये तो घर में उनके बड़े भाई महादेव शास्त्री रहते थे। घर के एक भाग में कुछ दिन पूर्व से श्री वामनराव धर्माधिकारी आकर रहे थे।

डॉक्टर केशवराव जब नागपुर आये तो घर में उनके बड़े भाई महादेव शास्त्री रहते थे। घर के एक भाग में कुछ दिन पूर्व से श्री वामनराव धर्माधिकारी आकर रहे थे। अतः घर की टूट-फूट की कुछ मरम्मत हो गयी थी। श्री वामनराव 1910 के उपरान्त जब सर्वप्रथम रहने को आये तो उस समय मकान की ओर महादेव शास्त्री के ध्यान ने देने के कारण उसकी अवस्था बहुत ही बिगड़ गयी थी। स्थान-स्थान पर छत से पानी चूने लगा था तथा कहीं-कहीं तो घास भी उग आयी थी। केशवराव डॉक्टर होकर यदि व्यवसाय करने लगते तो उनके उग्रप्रकृति बन्धु का मन शान्त होकर, उन्हें घर में रहने के लिए अनुकूल वातावरण मिलता। परन्तु डॉक्टर को नागपुर में आये काफी दिन बीत गये फिर भी व्यवसाय प्रारम्भ करने का कोई रंगढंग नहीं दिखा। उलटे श्री तात्याजी फडणवीस के दुमंजिले पर रहते हुए वे सार्वजनिक कामों में ही अधिकाधिक उलझे रहते थे। इस कारण उस समय तो दोनों भाइयों के बीच पटरी बैठना सम्भव नहीं था। पर इतना होने पर भी डॉक्टर कभी-कभी घर जाकर शास्त्रीजी से मिल आते थे। डॉक्टर के नागपुर आगमन के थोड़े ही दिन बाद वहाँ पुनः प्लेग फैल गया। पहले के समान अब लोग प्लेग के विषय में अजानकार नहीं थे। अतः उन्होंने फटाफट अपना घर छोड़कर शहर से बाहर जाकर झोंपड़ियाँ बनाकर रहना तथा प्लेग के टीके लेना प्रारम्भ कर दिया। इस समय डॉक्टर तथा सीतारामजी दोनों हम्पयार्ड के पास झोंपड़ी बनाकर रहने लगे। उन्होंने महादेव शास्त्री से भी वहाँ आकर रहने का बारम्बार आग्रह किया किन्तु उनकी मस्ती कुछ ऐसी थी कि उन्होंने ‘‘हमको साला प्लेग क्या कर सकता है’’ कहकर आने से इनकार कर दिया। पर यह हठ अन्त में घातक ठहरा। कारण, थोड़े ही दिनों में उन्हें भी प्लेग ने धर दबाया तथा उसमें वे बच नहीं पाये। उनकी मृत्यु का लाभ उठाकर आसपास के कुछ चोर-उचक्के उनके घर के बासन-भाण्डे तथा अन्य वस्तुओं को भी पार करने से नहीं चूके।

इस दुर्घटना के उपरान्त महामारी शान्त होने पर 1917 के प्रारम्भ में सीतारामजी तथा केशवराव अपने घर में आकर रहने लगे। इन्दौर से शिक्षा लेकर आने के बाद से अभी तक सीतारामजी फडणवीस के यहाँ रहते थे तथा पौरोहित्य करते थे। अब दोनों भाई एक साथ आ गये थे पर दोनों की रीति अलग-अलग थी। सीतारामजी पुरोहिताई के कारण निमंत्रण मिलने से भोजन के लिए अक्सर बाहर ही जाते थे परन्तु डॉक्टर मन के मुताबिक कभी घर में तो कभी मित्रों के यहाँ भोजन करते थे। उन दिनों उनके मित्र व्यवसाय प्रारम्भ करने के लिए बराबर उनके पीछे पड़े रहते थे। ‘‘व्यवसाय शुरू करो, हम लोग स्थान देखकर औषधालय की व्यवस्था कर देते हैं’’, सुबह-शाम, उठते-बैठते यही राग निरन्तर सुनने को मिलता। इस पर डॉक्टर शान्त रूप से यही उत्तर देते थे कि ‘‘थोड़े दिनों में देखा जायेगा। अभी जल्दी क्या है?’’ पर कुछ न करते हुए भी कभी-कभी तो विषय केवल मजाक में ही टाल देते थे। इन दिनों में उनके पास दस-पाँच औषधियाँ, एक स्टेथॉस्कोप, छोटा-सा तराजू तथा कुछ चुनी हुई डॉक्टरी पुस्तकें जमा हो गयी थीं। मित्रों में से कभी किसी को आवश्यकता हुई तो वे दवा भी देते थे। किन्तु इतने मात्र से यह नहीं कहा जा सकता कि उन्होंने व्यवसाय चला रखा था। व्यवसाय का विचार तो उनके मन में था ही नहीं।
जिन दिनों वे डॉक्टरी परीक्षा पास करके आये थे उन दिनों इस धन्धे की बड़ी माँग थी। उस समय के श्री कृ. दा. वह्राडपाण्डे के एक लेख से पता चलता है कि उन दिनों सम्पूर्ण मध्यप्रान्त और बरार में निजी डॉक्टरी का व्यवसाय करनेवालों की संख्या पचहत्तर से अधिक नहीं थी। जिस प्रान्त में आज हजारों की संख्या में डॉक्टर हैं वहाँ 1917 में केवल पचहतर लोग ही यह व्यवसाय कर रहे थे। इस कारण डॉक्टर की उन दिनों स्वाभाविक रीति से काफी प्रतिष्ठा थी तथा डॉक्टर केशवराव चाहते तो अच्छी कमाई कर सकते थे। एक ओर व्यवसाय प्रारम्भ करने का आग्रह चल रहा था तो दूसरी ओर पाँच-पाँच हजार रुपये दहेज में दिलानेवाला विवाह का प्रस्ताव लेकर भी लोग आ रहे थे। कोई चुपके से अपनी कन्या की जन्मपत्री उनके पास भेजकर उनकी प्रतिक्रिया जानने का प्रयत्न करता, तो कोई इधर-उधर परिचितों की सिफारिश पहुँचाकर अपनी बात का वजन बढ़ाने की कोशिश करता। किन्तु इन कुण्डलियों के नवग्रह में वे फँस नहीं पाये। वे सदैव एक ही उत्तर देते थे कि ‘‘अभी बड़े भाई का विवाह होना बाकी है। वह हो गया कि विचार करूँगा।’’ पर यह तरकीब भी आगे बहुत दिनों नहीं चल पायी। क्योंकि 1917 में सीतारामजी का विवाह हो गया तथा हेडगेवार-घराने में गृहलक्ष्मीने प्रवेश किया। सूना घर बस गया। रूक्ष वातावरण में सरसता आ गयी। चारों ओर मांगल्य का संचार होने लगा। पर डॉक्टर की तो ऐसी स्थिति हो गयी कि मानो प्राचीर की ओट से प्रत्यक्ष रण के मैदान पर आकर खड़े हो गये हों।
इसके उपरान्त कुण्डलियों तथा विवाह-प्रस्तावों की झंझट से जान बचाने के लिए वे अपने पास आनेवाले सज्जनों को आबाजी से मिलने के लिए रामपायली जाने को कहने लगे। विवाहयोग्य कन्या का पिता वर ढूँढ़ने के लिए क्या नहीं करता? इसलिए ऐसे लोग रामपायली के भी चक्कर काटने लगे। लोगों का यह आवागमन देखकर अन्त में आबाजी ने डॉक्टर को पत्र लिखा तथा पूछा कि ‘‘आपका विवाह के सम्बन्ध में क्या विचार है, यह एक बार स्पष्ट रूप से बता दो।’’ इस पर उन्होंने चाचाजी को लिख भेजा ‘‘अविवाहित रहकर जन्म-भर राष्ट्रकार्य करने का मैंने निश्चय किया है। देश-कार्य करते हुए कभी भी जीवन पर संकट आ सकता है, यह जानते हुए भी एक लड़की के जीवन का नाश करने में क्या अर्थ है?’’ इसके उपरान्त विवाह का परिच्छेद यहीं समाप्त हो गया।
भाई के विवाह से घर नये सिरे से बस गया था। अतः अब डॉक्टर की भोजन सम्बन्धी अव्यवस्था कुछ अंशों में कम हो गयी। महादेव शास्त्री के जमाने के अखाड़े की दशा बिगड़ जाने के कारण उसकी साधन-सामग्री दूसरे अखाड़ों को दे दी गयी। मलखम्भ ‘भारत व्यायामशाला’ को दे दिया। करेल डॉक्टर ने अपने लिए रख लिये। अखाड़ा चाहे बन्द हो गया हो परन्तु घर में व्यायाम बराबर चलता था। कलकत्ता से वापस आने के बाद भी कभी-कभी दोनों भाई भागते हुए कामठी तक जाते थे तथा वहाँ कन्हान में स्नान करके पूजा के लिए फूल लेकर लौटते थे।
युद्धकाल के अन्त तक डॉक्टर सम्पूर्ण नगर में घूम-घूमकर लोगों से मिलते रहते थे। उन दिनों 1908 से उनके स्नेही श्री भाऊजी कावरे के नेतृत्व में मध्यप्रान्त में जो क्रान्तिकारियों की हलचलें चल रही थीं डॉक्टर उनकी योजना बनाने और उसे कार्यान्वित करने के लिए प्रयत्नशील रहते थे। वे भिन्न-भिन्न लोगों से जाकर मिलते तथा उनको सौंपा हुआ काम कितने अंशों में पूर्ण हुआ है इसकी जानकारी लेकर आगे की योजना बताकर आते थे। एक त्यागी तथा शीलवान् तरुण के नाते सभी डॉक्टर का आदर करते थे और इसलिए जब भी वे किसी के पास जाते लोग अत्यन्त प्रेम और श्रद्धा के साथ उनसे उनके काम के सम्बन्ध में बातचीत करते।
1916 से आगे दो-तीन वर्ष मध्यप्रान्त के क्रान्तिकारी दल की जो कुछ गतिविधियाँ थीं उनकी कुछ बिखरी हुई स्मृतियाँ अभी भी सुनने को मिलती हैं। इनसे एक बात स्पष्ट हो जाती है कि इन योजनाओं में भाऊजी कावरे तथा डॉक्टर का प्रमुख हाथ रहता था। परन्तु प्रत्यक्ष किसी योजना को कार्यान्वित करने का दायित्व भाऊजी ने ही स्वीकार किया था। योजना तथा मार्गदर्शन डॉक्टर की ओर तथा उसे कार्यरूप में परिणत करने की जिम्मेदारी भाऊजी की ओर, इस प्रकार का श्रम-विभाग दोनों ने कर लिया था, ऐसा दिखता है। इसका कारण स्पष्ट है। डॉक्टर नागपुर, कलकत्ता, तथा पंजाब के क्रान्तिकारियों से परिचित एवं सम्बन्धित थे। अतः अन्य लोगों का सहकार्य प्राप्त करने तथा आपस की कड़ी के रूप में वे ही उपयोगी हो सकते थे। इसके अतिरिक्त 1908-9 से ही सरकारी गुप्तचर डॉक्टर हेडगेवार के पीछे लगे थे। अतः किसी को भी संशय न हो सके तथा बाहर से कायदे की मर्यादाओं में दिखे इसी प्रकार के काम करना ही सम्पूर्ण क्रान्तिकार्य की सुरक्षा तथा सफलता की दृष्टि से अधिक सुविधाजनक तथा युक्तियुक्त था। श्री भाऊजी कावरे की बात कुछ भिन्न थी। मैट्रिक तक शिक्षा लेकर तथा कुछ वैद्यकीय ग्रन्थों का अध्ययन कर उनके आधार पर व्यवसाय करनेवाले वे एक गृहस्थ थे। उनका बाह्य रूप अत्यन्त सादा था किन्तु अन्तर में ‘नाना कलाओं’ का निवास था। वे डॉक्टर से दो वर्ष बड़े तथा शरीर से हट्टे-कट्टे थे। उग्र तथा किंचित् पिंगल छटा लिये हुए तेज दृष्टि तथा झब्बेदार मूँछें उनकी विशेषता थी। उनका विवाह हो गया था। किन्तु पत्नी की मृत्यु हो गयी थी। अतः ‘अकेले प्राण, सदा कल्याण’ इस उक्ति के अनुसार वे बिलकुल निश्चिन्त तथा निर्भय थे। किसी भी आपत्ति में उनके मन का सन्तुलन तथा निश्चय डगमगा जाये यह कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। अपने दल के लोगों पर उनका भारी प्रभाव था। उसके पीछे कठोर अनुशासन के साथ प्रेमपूर्ण हृदय की सरसता भी थी। उनके कहे अनुसार चलने में कृतार्थता का अनुभव करनेवाले उनके एक सहकारी ने पूर्वस्मृति बाताते हुए एक बार कहा कि ‘‘भाऊजी का व्यक्तित्व ऐसा था कि उन्हें माँ कहें या पिता कहें, भाई कहें या मित्र कहें, यह समझ में नहीं आता था। कारण, इन सबका प्रेम वहाँ इकट्ठा मिलता था।’’ इस वाक्य को कहते हुए उस सहकारी की डबडबायी हुई आँखें ही इस उक्ति के पीछे की यथार्थता को प्रकट कर रही थीं।
भाऊजी कावरे तथा डॉक्टर की मित्रता अपूर्व थी। जैसे दो ओठों से एक ही शब्द निकलता है, दो आँखों से एख ही दृश्य दिखता है, दो कानों से एक ही बात सुनायी देती है तथा दो हाथों से एक ही ताली बजती हैं वैसे ही उन दोनों के बीच पूर्ण एकत्व की अनुभूति होती थी। हाँ, डॉक्टर की अपेक्षा अधिक भावनाशील होने के कारण भाऊजी रक्तमय क्रान्ति के अतिरिक्त अन्य मार्गों से जानेवालों का साभिनय उपहास करने में बड़े कुशल थे। नरहरि सुनार के समान उन्हें देशभक्ति के रक्त क्रान्तिमय रूप से ही भक्ति थी। उनका ध्येय-देवता पाण्डुरंग के समान कमर पर हाथ रखकर खड़ा होनेवाला नहीं था अपितु उसका रूप नित्य कोदण्डधारी राम का ही था। डॉक्टर में विचारों की शुद्धता और व्यापकता तथा उसके साथ ही भावना को संयम की लगाम लगाकर योग्य मार्ग से चलाने की पात्रता तथा कुशलता अधिक थी। इसलिए भाऊजी के बोलने में अन्य मार्गों से जानेवालों के सम्बन्ध में जैसा कटु उपहास दिखता था वैसा अनुभव डॉक्टर के व्यवहार में न आते हुए वहाँ सहिष्णुता की स्निग्धता मिलती थी। परन्तु स्वभाव के ये दो भिन्न रूप परस्पर उत्कट प्रेम तथा देशभक्तिपूर्ण अन्तःकरण होने के कारण एक ही चौखट में बैठकर एक दूसरे के लिए पूरक हो गये थे।
भाऊजी डॉ. मुंजे के घर के पास ही रहते थे। वहाँ डॉक्टर का बराबर आना-जाना रहता था। उसी प्रकार भारी पग्गड़ बाँधे तथा बड़ी-बड़ी मूँछवाले भाऊजी डॉक्टर के यहाँ भी आते थे तथा दोनों के बीच विचार-विनिमय होता रहता था। इन दोनों के अतिरिक्त यदि कोई अन्य बैठक में रहा तो फिर नागपुर की रीति के अनुसार अनिर्बन्ध गप्पें तथा हँसी-मजाक शुरू हो जाता था। बीच-बीच में हँसी के फव्वारे भी छूटते रहते थे। इस हँसी-खुशी के तथा मनोविनोद के वातावरण से किसी को यह शंका भी नहीं हो सकती थी कि वहाँ गोला-बारूद की भी कभी चर्चा होती होगी। पास-पड़ोस के लोग तो यही आश्चर्य करते रहते थे कि इन्हें कोई दूसरे काम हैं या नहीं? परन्तु इस प्रकार की बैठकों में से ही सशस्त्र विद्रोह की सामूहिक सिद्धता करने के विचार आगे चल रहे थे। मनुष्य, पैसा, तथा शस्त्र तीनों ही साधनों को इकट्ठा करने का काम प्रारम्भ था। इस क्रान्तिकारी दल में नये-नये तरुणों की भर्ती में सुविधा की दृष्टि से अण्णा खोत ने ‘नागपुर व्यायामशाला’ की स्थापना की। इसी प्रकार वर्धा और नागपुर दोनों स्थानों पर वाचनालय प्रारम्भ किये गये। मध्यप्रान्त तथा बरार में दल का जाल फैलाने का प्रयास चल रहा था तथा उसमें बहुत-कुछ सफलता भी मिल रही थी।
श्री भाऊजी कावरे और डॉक्टर का प्रान्त में मुख्य-मुख्य स्थानों पर योजनानुसार दौरा हुआ। किसी के विवाह के प्रसंग पर, तो कहीं हरडा के निमित्त, जैसा मौका मिलता, वे वहाँ जाने का कार्यक्रम बनाते थे। पर उनका अन्दरूनी उद्देश्य तो दूसरा ही रहता था। बाहर के लोगों को पता न चले इसलिए ये निमित्त ढूँढ़े जाते थे। नागपुर तथा बरार भाग में क्रान्तिकारी दल में सम्मिलित होनेवाले तथा प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष इस काम में आर्थिक सहायता करनेवाले मालगुजारों का भी एक वर्ग भाऊजी तथा डॉक्टर ने खड़ा किया था। इन लोगों की ओर हर बार नये-नये गाँवों में मिष्ठान-भोजन के कार्यक्रम आयोजित होते थे। उस समय एकत्र व्यक्तियों का बाह्य उद्देश्य तो सैर-सपाटा ही रहता था। पर इन्हीं बैठकों में पिस्तौल तथा गोला-बारूद को गुप्त रूप से खरीदने तथा अन्य कामों के लिए लगनेवाला सहस्रों रुपया इकट्ठा किया जाता था। ऐसी एक-एक बैठक में से पाँच-पाँच, दस-दस हजार रुपया लेकर डॉक्टर तथा कावरे लौटते थे। इस प्रकार की बैठकों को तत्कालीन राजाओं की सभा के मिष से मजाक में ‘नरेन्द्रमण्डल’ के नाम से पुकारा जाता था। इन बैठकों में धोटीवाडे के श्री समीमुल्ला खाँ भी धोती पहनकर तथा तिलक लगाकर सबके साथ पंक्ति में बैठते थे।
उपर्युक्त पद्धति से संग्रहीत धन से स्थान-स्थान के तरुणों को पिस्तौल तथा अन्य शस्त्रास्त्र खरीदकर दिये गये। इसके लिए कलकत्ता, भागानगर(हैदराबाद) और गोआ आदि स्थानों पर लोग भेजकर तथा जुगाड़ बैठाकर शस्त्र प्राप्त करने पड़ते थे। अन्य प्रान्तों के क्रान्तिकारियों के बिगड़े हुए पिस्तौलों को साफ करके दुरुस्त करने का काम भी डॉक्टर के एक मित्र श्री दादासाहब बख्शी सफाई से करते थे। श्री बख्शी एक अच्छे तन्त्रज्ञ हैं तथा उन्हें 1914-15 में डॉ. सावरकर तथा डॉ. हेडगेवार द्वारा लायी हुई पिस्तौलों की याद अभी भी ताजी है।
इसी प्रकार केशवराव ने बंगाल तथा पंजाब के क्रान्तिकारियों से सम्पर्क स्थापित कर वर्धा तथा नागपुर जिलों के लगभग बीस तरुणों का एक पथक उत्तर की ओर भेज दिया। इस पथक का नेतृत्व वर्धा के एक अत्यन्त ही साहसी तथा कट्टर क्रान्तिकारक श्री गंगाप्रसाद पाण्डे को सौंपा गया। गंगाप्रसाद पाण्डे ने राजस्थान के भिन्न-भिन्न राज्यों की अनुकूल स्थिति का विचार कर इन लोगों की अलग-अलग रियासतों में नियुक्ति की तथा विद्रोह के सम्पूर्ण सूत्रों का संचालन करने की दृष्टि से अजमेंर को केन्द्र बनाया। इस कार्य में अजमेर के प्रसिद्ध नेता श्री चाँदकरण शारदा की भी गंगाप्रसाद को सहायता मिली थी। इस पथक की आर्थिक व्यवस्था करने तथा कुशल, सजग एवं चतुर तरुणों को वहाँ की व्यवस्था का काम डॉक्टर ने नागपुर से ही चलाया।
महायुद्ध प्रारम्भ होने पर भिन्न-भिन्न मोर्चों को सम्हालने के लिए अंग्रेजों को बहुत-सी सेना भारत से बाहर भेजनी पड़ी। किन्तु इस समय जनता के ऊपर अपनी धाक जमी रहे इस उद्देश्य से जो थोड़ी-सी सेना यहाँ बची थी उसकी ही टुकड़ियों का संचालन करते हुए गाँव-गाँव में प्रदर्शन किया जाता था। अवध के नवाबों के वंशज भूखों मरते हुए भी जैसे मूँछ पर घी चुपड़कर अपनी रईसी का रोब जमाने का प्रयत्न करते रहते हैं वैसा ही यह प्रयत्न था। इस वस्तुस्थिति का ज्ञान विद्रोह की तैयारी करनेवाले क्रान्तिकारियों को था। केशवराव को लगने लगा कि देश में विदेशी सत्ता के तत्कालीन टुटपूँजिये सामर्थ्य का लाभ उठाकर देश के सभी प्रमुख नेताओं को ‘‘हिन्दुस्थान स्वतंत्र हो गया’’ यह घोषणा कर देनी चाहिए तथा ‘स्वतंत्रता का घोषणापत्र’ एक ही समय विभिन्न देशों में भी प्रकशित होना चाहिए। उन्होंने अपनी इस कल्पना को डॉ. मुंजे के सम्मुख रखा। किन्तु उन्हें वह मान्य नहीं हुई। ऐसा दिखता है कि उन्होंने इस सम्बन्ध में अन्य कुछ नेताओं से भी बात की किन्तु कहीं से समर्थन नहीं मिला।
इसी बीच डॉक्टर के मन में एक बार पूना जाकर लोकमान्य के दर्शन करने की इच्छा हुई। इसके पीछे उनका यह भी उद्देश्य था कि वर्तमान परिस्थिति के सम्बन्ध में लोकमान्य का विश्लेषण तथा विचार सुनने का भी अवसर मिल जायेगा। डॉ. मुंजे से परिचयपत्र लेकर वे पूना गये तथा लोकमान्य से भेंट की। डॉ. मुंजे के पत्र के कारण भेंट के बाद लोकमान्य ने उन्हें बाहर कहीं न ठहरने देते हुए अपने यहाँ ही रहने का आग्रह किया। डॉक्टर दो दिन उनके घर रहे। लोकमान्य अत्यन्त व्यस्त होते हुए भी स्वयं समय निकालकर देखभाल करते थे कि डॉक्टर के जलपान तथा सोने आदि की ठीक व्यवस्था हुई है या नहीं। इस प्रकार के आतिथ्य के कारण डॉक्टर को वहाँ रहने में संकोच लगने लगा। इसलिए काम पूरा होते ही उन्होंने शिवनेरी जाने का विचार प्रकट किया तथा इस निमित्त को लेकर गायकवाड-वाडा से बाहर आये। इस निवास के समय उन्होंने युद्ध-परिस्थिति तथा नागपुर-बरार क्षेत्र में होनेवाले प्रयत्नों के सम्बन्ध में लोकमान्य से विचार-विमर्श किया था।
लोकमान्य से भेंट करने के उपरान्त डॉक्टर शिवनेरी गये तथा शिव छत्रपति की बाल-लीला से पवित्रीकृत वातावरण में राष्ट्रसेवा के अपने संकल्प को और भी प्रदीप्त करते हुए नागपुर लौटे। उस समय शिवाजी के जन्म-स्थान के पास ही खड़ी मस्जिद तथा दरगाह उन्हें देखने को मिली। इस विसंगति को देखकर उन्हें बड़ी पीड़ा हुई। उनके मन की यह व्यथा जब भी शिवनेरी का उल्लेख होता था तो प्रकट हुए बिना नहीं रहती थी।
नागपुर में एकत्र की हुई साधन-सामग्री पंजाब और राजस्थान भेजी जाती थी। एक समय भुसावळ स्टेशन पर यह सामान ले जानेवाला एक दल दुर्दैव से पकड़ा गया। इस घटना से सतर्क होकर आगे यह काम स्त्रीवेशधारी तरुणों के द्वारा कराने की योजना की गयी। 1917 में ऐसे तरुणों को विशेष रूप से चुना गया जो पूरी तरह स्त्री का वेश धारण कर सकें। उसी प्रकार नागपुर में कुछ फुर्तीले, उत्साही तथा चतुर तरुणों को लाकर श्री नानासाहब टालाटुले तथा भाऊसाहब टालाटुले के मार्गदर्शन में निशानेबाजी की भी शिक्षा दी गयी। इस वर्ग में डॉक्टर ने सबको अच्छी तरह से बताया था कि क्रान्तिकार्य में जुटे हुए व्यक्तियों को किस प्रकार सावधानी बरतनी चाहिए। इसी वर्ग के निमित्त से डॉक्टर तथा वर्धा के श्री हरि कृष्ण(आप्पाजी) जोशी का निकट का सम्बन्ध आया और वह आगे चलकर प्रगाढ़ मैत्री के रूप में विकसित हो गया। क्रान्ति के काम में नये भर्ती होनेवालों की परीक्षा करके प्रतिज्ञा देने का काम डॉक्टर तथा भाऊजी कावरे करते थे। यह दिक्षा छत्रपति शिवाजी महाराज तथा समर्थ रामदास स्वामी की प्रतिमा के सम्मुख दी जाती थी।
तरुणों की परीक्षा की एक पद्धति का पता चला है। एक दिन भाऊजी कावरे तीन तरुणों को लेकर नागुपर से पाँच-छः मील दूर इन्दोरा गाँव में राजा भोंसले के कुँए के पास गये तथा उन्हें उसमें कूदने का आदेश दिया। उस कुएँ की गहराई चालीस फीट से भी अधिक थी। इस कारण दो तरुण तो सहम गये किन्तु तीसरे ने आदेश के अनुसार बेखटके छलाँग लगा दी। यह बालवीर बाबूराव हरकरे थे। बाबूराव के पीछे ही भाऊजी भी कूद पड़े तथा उसको ऊपर ले आये। इसके बाद उन्हें क्रान्तिकारी दल में प्रवेश की अनुमति दे दी गयी।
इस प्रकार परखे हुए तथा कसौटी पर खरे उतरनेवाले युवकों की बैठकें नागपुर में बारहद्वारी, तुलसीबाग, सोनेगाँव के मन्दिर, कर्नलबाग, इन्दोरा के मन्दिर तथा मोहितेबाड़े में अदल-बदलकर होती थीं। बैठक समाप्त होने पर अगली बैठक का बदला हुआ स्थान तथा समय और दिन बता दिया जाता था। मेजिनी, जोन आफ आर्क, बंगाली क्रान्तिकारियों की वीर-कथाएँ, अलीपुर तथा माणिकतत्ला बमकाण्ड का मुकदमा, तथा ‘टू ब्यूटीज़’ के आवरण में छिपी हुई बै. सावरकर की पुस्तक ‘इण्डियन वार आफ इण्डिपेण्डेन्स’ आदि साहित्य उन्हें पढ़ने के लिए दिया जाता था।
इस समय मध्यप्रदेश के क्रान्तिकरी दल में लगभग डेढ़ सौ तरुण सम्मिलित हो गये थे। किन्तु पहले से ही सावधानी रखने के कारण से तैयारी का कहीं भी सुराग नहीं लग पाया। एकाध व्यक्ति का कभी पता चल भी गया तो उसके कारण एक-एक कड़ी जोड़ते हुए सम्पूर्ण योजना का ही भण्डाफोड़ न हो जाये इसका भी विचार किया गया था। इसके लिए प्रत्येक व्यक्ति को पूरी तरह परखने, उसकी निश्चित कार्य पर योजना करने तथा उसमें व्यर्थ की जिज्ञासा एवं कुतूहल न उत्पन्न होने देने आदि सभी आवश्यक बातों में पर्याप्त सतर्कता बरती गयी थी। सन्देशपत्र डाक से न भेजते हुए व्यक्ति के द्वारा ही भेजा जाता था तथा आशय को सांकेतिक भाषा, उपनाम आदि का व्यवहार कर पूर्णतः गुप्त रखा जाता था।
नागपुर में उपाध्ये के बाड़े में श्री नानासाहब तेलंग तथा उनके छः-सात महाविद्यालयीन मित्र इकट्ठा रहते थे। वे सभी इस क्रान्तिकारी दल में सम्मिलित थे तथा उनकी पुस्तकों के बक्से ही कुछ दिनों डॉक्टर की पिस्तौल तथा कारतूसो को छिपाने के काम आते थे।
श्री भाऊजी कावरे तथा डॉक्टर के नेतृत्व में चलनेवाले नागपुर भाग के इस क्रान्तिकारी दल ने शस्त्र एवं धन-संचय के हेतु विविध मार्गों का अवलम्बन किया था। उसके लिए आवश्यक अभियानों की योजना अत्यन्त सावधानी से कार्यान्वित होने के कारण उनका कभी पता नहीं चल पाया। कुछ लोगों की स्मृति के अनुसार इस प्रकार के अभियान पर जानेवाले लोगों को डॉक्टर स्वयं थालीपीठ बनाकर पाथेय के रूप में देते थे। एक बार इस प्रकार के एक संकल्पित अभियान पर जाने के लिए नानासाहब तेलंग को बाहर से नागपुर बुलवाना था। उस समय वे बी.ए. की परीक्षा देकर केवल चार दिन पहले ही अपने गाँव गये थे। ऐसे अवसर पर उनके घर के लोगों को तुरन्त लौटना सयुक्तिक लगे इसके लिए डॉक्टर ने एक मित्र के विवाह में आने के लिए अत्यन्त आग्रह-भरा पत्र लिखा था। इस संकेत से दोनों ही काम ठीक प्रकार से जम गये।
धन-संचय के समान ही कामठी की सैनिक छावनी में कुछ लोगों से सन्धान बैठाकर गुप्त रूप से शस्त्र खरीदने का काम भी किया गया था। एक बार तो नागपुर से जानेवाली सरकारी गोला-बारूद की पेटियों को कुछ लोगों ने सैनिक वेश धारण कर बड़ी चतुराई से गाड़ी में से उतरवा लिया। चुपचाप इन पेटियों को योग्य स्थान पर पहुँचा देने के उपरान्त, आगे सरकारी जाँच में कोई सबूत न मिल सके इसलिए डॉक्टर ने सैनिक वेश के कपड़ों को जलाकर उनकी राख भी एक नाले मं फेंक दी थी। इस प्रकार की अनेक रम्य कथाएँ कई लोगों ने अभी तक मन में ही दबाकर रखी थीं। अब कहीं थोड़ी-थो़ड़ी वे प्रकाश में आ रही हैं। सम्भवतः योग्य काल आने पर उन पर कोई लेखनी पूरा प्रकाश डाल सकेगी।
मनुष्य तथा शस्त्रास्त्रों का यह संग्रह निश्चित ही किसी विद्रोह के लिए किया गया था। परन्तु उस विद्रोह की कल्पना और स्वरूप क्या था इसका पता चलने का आज कोई साधन उपलब्ध नहीं है। इस प्रकार की बातें साधारणतः तभी प्रकट होती हैं जब कि क्रान्ति की पूर्वसिद्धता होते हुए ही सरकार की दृष्टि में वह आ जाये तथा खिलने के पहले ही कली को मसल दिया जाये, अथवा क्रान्ति की सिद्धता पूर्ण होकर दल की योजना के अनुसार सरकार को भयकम्पित करने के लिए व्यक्तिगत अथवा सामूहिक आक्रमण का धड़ाका प्रकट हो जाये।
उपलब्ध जानकारी से इतना अवश्य कहा जा सकता है कि इस विद्रोह का स्वरूप सामूहिक था क्योंकि वह पंजाब से लेकर नागपुर तक व्याप्त था। साथ ही ऐसा लगता हैं कि वह विदेश से जहाज पर आनेवाले शस्त्रों पर भी कुछ अंशों तक निर्भर था। यवतमाळ के श्री वामनराव धर्माधिकारी बताते हैं कि ‘‘1917-18 के लगभग डॉक्टर ने विद्रोह का विचार हमारे कानों पर डाला था।’’ इतना ही नहीं, डॉक्टर ने उनको 1918 में मार्मागोआ भेजा था तथा बताया था कि ‘‘संकेत के अनुसार एक जहाज आनेवाला है। अतः जैसे ही वह वहाँ आकर पहुँचे वैसे ही नागपुर में आकर खबर देना।’’ उस समय उनके साथ पर्याप्त पैसे भी दिया गये थे। उस आदेश के अनुसार वामनराव बम्बई से समुद्री मार्ग से गोआ गये। वहाँ सातारा के श्री पाटील से मिलकर अगला काम होनेवाला था। तदनुसार वे पाटील से मिले। पाटील पैंतीस वर्ष का दिखने में काला पर छरहरा जवान था। उसने उनकी गोआ में केरी में श्री दादासाहब वैद्य के यहाँ ठहरने की व्यवस्था कर दी। पर जिन आठ दिनों में वह जहाज आनेवाला था नहीं आया। उलटे यह पता चला कि अंग्रेजों ने एक नौका बीच में ही रोक रखी है। फलतः वामनराव ने पूना होते हुए वापस नागपुर आकर डॉक्टर को सम्पूर्ण सन्देश दे दिया। धर्मधिकारी को इसके पूर्व भी श्री नानासाहब तेलंग के साथ गोआ भेजकर डॉक्टर ने कुछ पिस्तौलें मँगवायी थीं। पहले का जानकार होने के कारण उन्हें दुबारा भेजा गया था। इस प्रकार इधर-उधर से मिलनेवाली फुटकर घटनाओं के वृत्त से उस विद्रोह की पूरी कल्पना करना तो कठिन है किन्तु उसका स्वरूप सांघिक था यह तो निश्चित रूप से कहा जा सकता है।
जर्मनी को पराजित कर अब अंग्रेज सरकार बेखटके हो गयी थी। फलतः भारत में क्रान्तिकारी कार्यवाहियों को पूर्णतः नष्ट करने की उसकी नीति और भी तेज हो गयी। जिस प्रकार अंग्रेजों के ऊपर आया महायुद्ध का संकट पराधीन भारत की स्वतंत्रता-प्राप्ति के प्रयत्नों के लिए स्वर्ण अवसर था, उसी प्रकार अंग्रेजों की विजय उन्हें पददलित भारत को अपने चंगुल में कसकर जकड़ने का साहस प्रदान करनेवाली होकर भारत के लिए अभिशाप सिद्ध हुई। भारत में इस नीति का अनुभव जहाँ-तहाँ होने लगा। बड़ी आशा और उत्साह से हाथ में लिए आन्दोलनों के विफल मनोरथ होने पर सर्वसामान्य जनता तथा विशेषकर क्रान्तिकारियों में चारों ओर घोर निराशा के बादल छा गये। क्रान्तिकारी कार्य का जाल चारों ओर फैला हुआ था, किन्तु अब उसकी सम्भावना समाप्त हो चुकी थी। उलटे कार्यकर्ताओं की निराश एवं विफलता की मनःस्थिति के कारण यह सम्भावना बढ़ती जाती थी कहीं पेट की बात मुँह पर न आ जाये। अतः आवश्यक हो गया कि चारों ओर के व्याप को समेटकर अत्यन्त शान्त भाव एवं सतर्कता के साथ लीला का संवरण कर लिया जाये। यह कार्य विवाह के लिए बड़े ठाट-बाट से निर्मित मण्डप को बिना विवाह पूर्ण हुए ही उखाड़ने जैसा था। बल्कि यह तो उससे भी अधिक कठिन, दुःखदायक तथा उद्वेगजनक था। किन्तु शतरंज के खेल में एक चाल गलत हो गयी तथा उसका परिणाम अपने ही ऊपर उलटा आ पड़ा तो भी न घबराते हुए जो आगे अधिक कुशलता तथा सावधानी से मोहरें बढ़ता है वह हारी हुई बाजी को भी पलट सकता है। उसी प्रकार राजनीति में भी कदम रखने पड़ते हैं। यहाँ कोई भी घटना अन्तिम नहीं होती।
असफलता ही पल्ले में पड़ती देखकर कई तरुणों को पश्चात्ताप होने लगा तथा उन्होंने निश्चय किया कि फिर भूलकर भी इस प्रकार के झगड़ों में नहीं पड़ेंगे। उनके लिए तो यह घटना सार्वजनिक कार्य की दृष्टि से पूर्ण विराम ही समझना चाहिए। इसके विपरीत दूसरा उन लोगों का वर्ग हो सकता है जो उस समय चाहे तो निराशा के थपेड़े खाकर कर्मविरत होकर चुप बैठ गये हों किन्तु, पतझड़ में सूखे वृक्षों के वसन्त में फिर लहलहाने के समान, स्थिति की अनुकूलता के साथ ही निराशा को छोड़कर पुनः उत्साह के साथ जुटने की तैयारी रखते थे। किन्तु स्वयंप्रेरणा से जान-बूझकर असिधारा-व्रत ग्रहण करनेवालों की स्थिति इन दोनों से भिन्न रहती है। यह नहीं कि उन्हें इन घटनाओं से पीड़ा नहीं होती किन्तु उनकी ध्येयनिष्ठा इतनी दृढ़ एवं अटल होती है कि वे उस परिस्थिति में घटी हुई घटनाओं का विश्लेषण कर, आगे इस प्रकार की विषम परिस्थिति में भी आगे कैसे बढ़ा जा सकेगा इसका मार्ग ढूँढ़ने में लग जाते हैं। यह करते हुए भावना के वशीभूत होकर उनमें सन्ताप अथवा विरक्ति का उदय नहीं होता। वे जानते हैं कि आम्र-वृक्षों में आया हुआ सब-का-सब मौर फलता नहीं है। उसमें से कुछ झड़ जाता है तो कुछ को पक्षी खा जाते हैं। वे अपनी ओर से पराकाष्ठा के प्रयत्न करते हैं किन्तु उनमें यदि अपेक्षानुसार सफलता नहीं मिली तो वे अपने मार्ग और साधनों का ठीक-ठीक परीक्षण कर उनके दोष दूर कर, अथवा समय पड़ा तो उनका त्याग करके भी, आगे पग बढ़ाने के लिए उससे भी प्रभावी मार्ग तथा साधन खोज निकालते हैं। असफलता को आत्मनिरीक्षण का अवसर मानकर ‘तोड़ा हुआ तरु बड़ी गति से बढ़ेगा’ इस उक्ति का परिचय देनेवाले कभी-न-कभी परिस्थिती पर हावी होते हुए अवश्य ही दिखते हैं। डॉक्टर तथा उनके सहकारियों ने इसी प्रकार की कार्यानुकूल मनःस्थिति में उस परिस्थिति का सामना किया।
इन दिनों गणेशोत्सवों में डॉक्टर के बड़े गरम भाषण होते थे। इस निमित्त को लेकर उन्होंने सम्पूर्ण प्रान्त का दौरा कर सम्बन्धित तरुणों से व्यक्तिगत रूप से मिलकर उनको निराशा के गर्त में डूबने से बचाने का प्रयत्न किया। मध्यप्रान्त की ‘होमरूल लीग’ में भी उन्होंने प्रवेश किया तथा उसकी सभाओं और विभिन्न क्षेत्रीय परिषदों में कभी अध्यक्ष के नाते तो कभी प्रमुख वक्ता के नाते लोगों के सम्मुख उत्साहवर्धक विचार रखे। उस वर्ष बरार में लोकमान्य के दौरे के पूर्व डॉक्टर ने स्वयं संचार करके स्थान-स्थान पर डॉ. मुंजे की अपेक्षा के अनुसार लोकमान्य के यथोचित सत्कार की सब प्रकार की तैयारी की। अपने से सम्बन्धित किसी भी व्यक्ति को हतोत्साह होकर बैठने नहीं देंगे इसी निश्चय से अवसर का लाभ उठाने के लिए उन्होंने यह दौड़धूप की। एक ओर यह सार्वजनिक काम चालू था तो दूसरी ओर इसके साथ-साथ क्रान्ति के लिए एकत्र धन, शस्त्रास्त्र तथा मनुष्यों की ठीक-ठीक व्यवस्था करने का काम भी डॉक्टर बराबर कर रहे थे। इतना ही नहीं, यह सब समेटने के काम की ओर किसी की निगाह न जाये इसलिए बाहर से सार्वजनिक सभा तथा भाषणों का जोरदार सत्र भी चालू किया गया था।
इस काम में श्री गंगाप्रसाद पाण्डे, श्री आप्पाजी जोशी, श्री बाबूराव हरकरे तथा श्री नानाजी पुराणिक आदि व्यक्ति प्रमुख थे। अमृतसर भेजी गयी सामग्री की ठीक व्यवस्था का समाचार 1919 के प्रारम्भ में ही मिल गया था। किन्तु अभी उत्तर में भेजे गये व्यक्तियों को वापस लाना था। इस हेतु श्री आप्पाजी जोशी को अमृतसर भेजा गया। उनको वापस लाकर तथा कुछ आर्थिक सहायता देकर उनकी व्यवस्था से आप्पाजी जैसे ही मुक्त हुए कि उनको डॉक्टर की ओर से उसी समय कारागृह से मुक्त हुए श्री अर्जुनलाल शेठी की वर्धा में व्यवस्था करने का आदेश मिला। अर्जुनलाल क्रान्तिकारी आन्दोलन में पकड़े गये थे तथा उनसे जानकारी प्राप्त करने के लिए पुलिस ने उनको भीषण यंत्रणाएँ दी थीं। उसमें उन्होंने बड़ा धैर्य दिखाय था तथा अपने किसी भी सहकारी का नाम ओठों पर नहीं आने दीया। पर इन यंत्रणाओं के कारण जेल में ही वे कुछ पागल हो गये तथा उनका स्वास्थ्य बेहद गिर गया। 1919 के प्रारम्भ में इसी हालत में वे जेल से छूटे। ऐसे सहकारी को आड़े वक्त सहारा देने का कर्तव्य समझकर ही डॉक्टर ने आप्पाजी को उपर्युक्त आदेश दिया था। इसके अनुसार उन्हें परिवार सहित वर्धा लाकर वहाँ उनकी व्यवस्था कर दी गयी। तीन-चार वर्ष में उनका पागलपन जाता रहा तथा स्वास्थ्य भी ठीक हो गया। 1917 में चलाये गये ‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक मण्डल’ के एक सदस्य श्री चिरंजीवलालजी बडजाते ने प्रमुखता से उनका आर्थिक भार वहन किया।
सभी प्रमुख लोगों को यह भय लगा रहता था कि कहीं भूल से यदि अपनी योजना का पता शासन को लग गया तो कुछ भी साध्य न होते हुए अनेक लोगों के जीवन धूल में मिल जायेंगे। इस हेतु वे बड़े सतर्क रहते थे। पर इतने में ही पंजाब से लौटे हुए एक सज्जन ने हिंगणी में बम का धड़ाका कर दिया। फलतः जाँच-पड़ताल का रगड़ा पीछे लग गया। इससे प्रमुख व्यक्तियों कि चिन्ता और भी बढ़ गयी। साथ ही उस प्रतिकूल समय में क्रान्तिकारियों में अनुशासन भी ढीला हो गया था। कुछ व्यक्तियों का स्वार्थ उभरने लगा। जिन क्रान्तिकारियों के पास पैसे और शस्त्र थे उनमें से कुछ ने उनको लौटाने के आदेश की पूरी-पूरी अवहेलना की। जब लिखा-पढ़ी होने के बाद भी लोग दूसरों के पैसे हड़प करने से नहीं चूकते तब सम्पूर्ण काम ही जहाँ विश्वास पर चला हो वहाँ का क्या कहना? न तो कोई चिट्ठी और न चपाटी। इतना ही नहीं यदि किसी ने विश्वासघात करके ठग भी लिया तो उसके सम्बन्ध में मुहँ से शब्द भी निकालना गुनाह ही था। ऐसे अनुभवों के कई कड़वे घूँट कावरे और डॉक्टर को उस समय पीने पड़े।
पर सफलता के अमृत-घट के लिए जितने उत्साह से उन्होंने हाथ बढ़ाया था उतने ही सहज भाव से उन्होंने असफलता का हलाहल-कुम्भ भी स्वीकार किया। सफलता मिली तो अपना पराक्रम कहकर वाहवाही लूटना तथा असफलता रही तो परिस्थिति के मत्थे पर उसका खप्पर फोड़ने की प्रवृत्ति साधारण मनुष्य में होती है। किन्तु वे दोनों ही इस प्रवृत्ति से ऊपर उठे हुए थे। उन्होंने सम्पूर्ण घटना की भली प्रकार परीक्षा की तथा उसमें कहाँ त्रुटि रह गयी इसकी खोज की।

डॉक्टर को उस निरीक्षण में से यह स्पष्ट दिखने लगा कि पूर्ण प्रभावी संस्कार किये बिना देशभक्ति का स्थायी स्वरूप निर्माण होना सम्भव नहीं है तथा इस प्रकार की स्थिति निर्माण होने तक सामाजिक व्यवहार में प्रामाणिकता भी सम्भव नहीं। इसके साथ ही उन्होंने यह भी देखा कि भावना के वेग तथा जवानी के जोश में कई तरुण खड़े हो जाते हैं परन्तु दमनचक्र प्रारम्भ होते ही वे मुहँ मोड़कर सदा के लिए सामाजिक क्षेत्र से दूर हट जाते हैं। ऐसे लोगों के भरोसे देश की विकट तथा उलझी हुई समस्याएँ कैसे सुलझ सकेंगी? इसके लिए ध्येय पर अविचल दृष्टि रखकर मार्ग में मखमली बिछौने हों या काँटे बिखरे हों उनकी चिन्ता न करते हुए निरन्तर आगे ही बढ़ने के दृढ़ निश्चयवाले धृति-कृतिशील तरुण खड़े करने पड़ेंगे। उन्होंने देखा कि देशभक्त कहलाने वाले तरुणों को भी अनुशासन सहन नहीं होता। निःस्वार्थता जीवन में आये बिना खरा अनुशासन निर्माण नहीं होता तथा अनुशासन के बिना परकीयों के यंत्र-तंत्रसज्ज पाशवी बल को ठोकर मारने का समार्थ्य किसी भी राष्ट्रीय उत्थान के प्रयत्न में नहीं आ सकता। इस असफलता से डॉक्टर ने तत्कालीन समाज की स्थिति का बहुत ही स्पष्ट एवं सही बोध लिया तथा उसके आधार पर अगले पगों की दिशा निश्चित की। पर सशस्त्र क्रान्ति पर से उनका विश्वास यत्किंचत् भी नहीं डिगा था। उनका यह निश्चित मत था कि देश के शत्रुओं को जिस किसी भी मार्ग से इस भूमि से निकाला जा सके वही इष्ट तथा योग्य है। हाँ, किसी भी मार्ग पर चलकर सफलता प्राप्त करने के लिए जिस वृत्ति की आवश्यकता होती है उसका अभाव उन्हें उस समय प्रमुख रूप से दिख रहा था। जिनके पास दृष्टि है वे बुरे में से भी अच्छा खोज लेते हैं।

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