इसरो ने बताया कि ये ऑपरेशन ISTRAC बेंगलुरु से किया गया। इस दौरान सैटेलाइट को मॉरिशस और पोर्ट ब्लेयर में बने ISRO के ग्राउंड स्टेशनों से ट्रैक किया गया। अब 19 सितंबर को रात 2 बजे इसे लैगरेंज पॉइंट L1 की कक्षा में स्थापित करने के लिए ऑर्बिट बढ़ाई जाएगी।
3, 5 और 10 सितंबर को भी बढ़ाई गई थी ऑर्बिट
इसरो ने 10 सितंबर को रात करीब 2.30 बजे तीसरी बार आदित्य L1 स्पेसक्रॉफ्ट की ऑर्बिट बढ़ाई थी। तब इसे पृथ्वी से 296 किमी x 71,767 किमी की कक्षा में भेजा गया था। यानी इसकी पृथ्वी से सबसे ज्यादा दूरी 71,767 किलोमीटर और सबसे कम दूरी 296 किलोमीटर थी।
5 सितंबर को रात 2.45 बजे आदित्य L1 स्पेसक्रॉफ्ट की ऑर्बिट दूसरी बार बढ़ाई गई थी। तब इसे पृथ्वी की 282 किमी x 40,225 किमी की कक्षा में भेजा गया। यानी उसकी पृथ्वी से सबसे कम दूरी 282 किमी और सबसे ज्यादा दूरी 40,225 किमी थी।
पहली बार इसरो के वैज्ञानिकों ने 3 सितंबर को आदित्य L1 की ऑर्बिट बढ़ाई थी। तब इसे पृथ्वी की 245 Km x 22459 Km की कक्षा में भेजा गया। यानी उसकी पृथ्वी से सबसे कम दूरी 245 किमी और सबसे ज्यादा दूरी 22459 किमी हो गई थी।
लॉन्चिंग के 63 मिनट 19 सेकेंड बाद पृथ्वी की कक्षा में पहुंचा था आदित्य L1
आदित्य L1 को 2 सितंबर को सुबह 11.50 बजे PSLV-C57 के XL वर्जन रॉकेट के जरिए श्रीहरिकोटा के सतीश धवन स्पेस सेंटर से लॉन्च किया गया था। लॉन्चिंग के 63 मिनट 19 सेकेंड बाद स्पेसक्राफ्ट को पृथ्वी की 235 Km x 19500 Km की कक्षा में स्थापित कर दिया था।
करीब 4 महीने बाद यह 15 लाख Km दूर लैगरेंज पॉइंट-1 तक पहुंचेगा। इस पॉइंट पर ग्रहण का प्रभाव नहीं पड़ता, जिसके चलते यहां से सूरज पर आसानी से रिसर्च की जा सकती है।
5 पॉइंट में जानें आदित्य L1 का सफर
PSLV रॉकेट ने आदित्य को 235 x 19500 Km की पृथ्वी की कक्षा में छोड़ा।
16 दिनों तक पृथ्वी की कक्षा में रहेगा। 5 बार थ्रस्टर फायर कर ऑर्बिट बढ़ाएगा।
फिर से आदित्य के थ्रस्टर फायर होंगे और ये L1 पॉइंट की ओर निकल जाएगा।
110 दिन के सफर के बाद आदित्य ऑब्जरवेटरी इस पॉइंट के पास पहुंच जाएगा
थ्रस्टर फायरिंग के जरिए आदित्य को L1 पॉइंट के ऑर्बिट में डाल दिया जाएगा।
लैगरेंज पॉइंट-1 (L1) क्या है?
लैगरेंज पॉइंट का नाम इतालवी-फ्रेंच मैथमैटीशियन जोसेफी-लुई लैगरेंज के नाम पर रखा गया है। इसे बोलचाल में L1 नाम से जाना जाता है। ऐसे पांच पॉइंट धरती और सूर्य के बीच हैं, जहां सूर्य और पृथ्वी का गुरुत्वाकर्षण बल बैलेंस हो जाता है और सेंट्रिफ्यूगल फोर्स बन जाती है।
ऐसे में इस जगह पर अगर किसी ऑब्जेक्ट को रखा जाता है तो वह आसानी उस पॉइंट के चारो तरफ चक्कर लगाना शुरू कर देता है। पहला लैगरेंज पॉइंट धरती और सूर्य के बीच 15 लाख किलोमीटर की दूरी पर है। ऐसे कुल 5 लैंगरेंज पॉइंट मोजूद हैं।
L1 पॉइंट पर ग्रहण बेअसर, इसलिए यहां भेजा जा रहा
इसरो का कहना है कि L1 पॉइंट के आस-पास हेलो ऑर्बिट में रखा गया सैटेलाइट सूर्य को बिना किसी ग्रहण के लगातार देख सकता है। इससे रियल टाइम सोलर एक्टिविटीज और अंतरिक्ष के मौसम पर भी नजर रखी जा सकेगी। ये 6 जनवरी 2024 को L1 पॉइंट तक पहुंचेगा।
आदित्य में 7 पेलोड लगे हैं:
PAPA यानी प्लाज्मा एनालाइजर पैकेज फॉर आदित्य: सूरज की गर्म हवाओं की स्टडी करेगा।
VELC यानी विजिबल लाइन एमिसन कोरोनाग्राफ: सूरज की हाई डेफिनेशन फोटो खींचेगा।
SUIT यानी सोलर अल्ट्रावायलेट इमेजिंग टेलिस्कोप: सूरज की अल्ट्रावायलेट वेवलेंथ की फोटो लेगा।
HEL10S यानी हाई एनर्जी L1 ऑर्बिटिंग एक्स-रे स्पेक्ट्रोमीटर: हाई-एनर्जी एक्स-रे की स्टडी करेगा।
ASPEX यानी आदित्य सोलर विंड पार्टिकल एक्सपेरिमेंट: अल्फा पार्टिकल्स की स्टडी करेगा।
MAG यानी एडवांस्ड ट्राई-एक्सियल हाई रेजोल्यूशन डिजिटल मैग्नेटोमीटर्स: मैग्नेटिक फील्ड की स्टडी करेगा।
सूर्य की स्टडी क्यों जरूरी?
जिस सोलर सिस्टम में हमारी पृथ्वी है, उसका केंद्र सूर्य ही है। सभी आठ ग्रह सूर्य के ही चक्कर लगाते हैं। सूर्य की वजह से ही पृथ्वी पर जीवन है। सूर्य से लगातार ऊर्जा बहती है। इन्हें हम चार्ज्ड पार्टिकल्स कहते हैं। सूर्य का अध्ययन करके ये समझा जा सकता है कि सूर्य में होने वाले बदलाव अंतरिक्ष को और पृथ्वी पर जीवन को कैसे प्रभावित कर सकते हैं।
सूर्य दो तरह से एनर्जी रिलीज करता है:
प्रकाश का सामान्य प्रवाह जो पृथ्वी को रोशन करता है और जीवन को संभव बनाता है।
प्रकाश, कणों और चुंबकीय क्षेत्रों का विस्फोट जिससे इलेक्ट्रॉनिक चीजें खराब हो सकती हैं।
इसे सोलर फ्लेयर कहा जाता है। जब ये फ्लेयर पृथ्वी तक पहुंचता है तो पृथ्वी की मैग्नेटिक फील्ड हमें इससे बचाती है। अगर ये ऑर्बिट में मौजूद सैटेलाइटों से टकरा जाए तो ये खराब हो जाएंगी और पृथ्वी पर कम्युनिकेशन सिस्टम से लेकर अन्य चीजें ठप पड़ जाएंगी।
अब तक का सबसे बड़ा सोलर फ्लेयर 1859 में पृथ्वी से टकराया था। इसे कैरिंगटन इवेंट के नाम से जाना जाता है। तब ग्लोबल टेलीग्राफ कम्युनिकेशन प्रभावित हुआ था। इसीलिए इसरो सूर्य को समझना चाहता है। अगर सोलर फ्लेयर की ज्यादा समझ होगी तो इससे निपटने के लिए कदम उठाए जा सकते हैं।
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