बंगाल में बिपिन चंद्र पाल, महाराष्ट्र में बाल गंगाधर तिलक और पंजाब में लाला लाजपत राय इसका नेतृत्व कर रहे थे. इन्हें आगे चलकर 'गरम दल' के रूप में जाना गया.
इन्होंने मिलकर स्वदेशी सामान का इस्तेमाल बढ़ाने और भारत में विदेशी सामान, ख़ास तौर पर विदेशी कपड़ों के बहिष्कार की मुहिम चलाई थी. मुहिम की सफलता का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि जब ईस्ट बंगाल के लेफ़्टिनेंट गवर्नर लैंसलेट हेयर ने बारिसाल में मैनचेस्टर में बना कपड़ा ख़रीदने का इच्छा प्रकट की तो उनसे कहा गया कि इसके लिए उन्हें पूर्वी बंगाल में राष्ट्रवादी नेता अश्वनी कुमार दत्ता से अनुमति लेनी होगी.
जब बंगाल में सार्वजनिक रूप से 'बंदे मातरम' का नारा लगाना प्रतिबंधित हो गया तो पंजाब में इसका ज़बरदस्त विरोध किया गया. इसका नेतृत्व कर रहे रहे थे लाला लाजपत राय.
आने वाले दिनों में बंगाल, महाराष्ट्र और पंजाब अंग्रेज़ों के विरोध के गढ़ बन गए और वहां के नेताओं बिपिन चंद्र पाल, बाल गंगाधर तिलक और लाला लाजपत राय को 'लाल-बाल-पाल' की उपाधि दी गई.
1882 में 17 वर्ष की आयु में लाला लाजपत राय के आर्य समाज के सदस्य बनने के साथ ही समाज सेवा करनी शुरू कर दी थी. उन्होंने स्वामी दयानंद सरस्वती के साथ मिल कर आर्य समाज को पंजाब में लोकप्रिय बनाया. उन्होंने दयानंद एंग्लोवैदिक (डीएवी) विद्यालयों का भी प्रसार किया.
1896 में जब मध्य भारत में ज़बरदस्त अकाल पड़ा, ईसाई मिशनरियों के उस इलाक़े के बड़ी संख्या में लोगों को ईसाई बनाने की कोशिशों की ख़बरें सामने आईं. लाला लाजपत राय ने अकाल में अनाथ हो गए बच्चों के लिए एक अभियान चलाया. उन्होंने जबलपुर और बिलासपुर क्षेत्र के क़रीब 250 अनाथ बच्चों को वहां से पंजाब लाकर अनाथालयों में शरण दी.
लालाजी समाज सुधारक होने के अलावा एक अच्छे लेखक भी थे. उन्होंने इतालवी राजनेता मैज़िनी और गैरिबाल्डी की जीवनी उर्दू में लिखी. लाला लाजपत राय ने ही एक उर्दू साप्ताहिक 'वंदे मातरम' और अंग्रेज़ी साप्ताहिक 'द पीपुल' छापना शुरू किया.
कांग्रेस के सदस्य बनने और पंजाब में राजनीतिक गतिविधियों में भाग लेने के बाद लाला लाजपत राय को देश से निष्कासित कर बर्मा (अभी के दौर का म्यांमार) भेज दिया गया. लालाजी को एक विशेष ट्रेन से वहां भेजा गया जिसकी सभी खिड़कियां बंद कर दी गई थीं. जेल में उनके साथ अच्छा व्यवहार नहीं हुआ.
लाला लाजपत राय के जीवनीकार डाक्टर लाल बहादुर सिंह चौहान लिखते हैं, "लाला लाजपत राय को छोटी-सी कोठरी में रखा गया. उन्हें सोने के लिए एक चारपाई, एक कुर्सी और मेज़ दी गई थी लेकिन उन्हें पढ़ने के लिए न तो कोई समाचार पत्र उपलब्ध कराया गया और न ही उन्हें किसी से मिलने की इजाज़त दी गई. उन्हें हजामत के वास्ते नाई बुलाने के लिए हुज्जत करनी पड़ती थी. उनकी कोठरी में अंधेरा रहता था. कई बार कहने के बाद ही उन्हें कमरे में रोशनी के लिए दो मोमबत्तियां दी गई थीं. कपड़ों और दवाओं के लिए भी लालाजी को बार-बार अंग्रेज़ अफ़सरों से कहना पड़ता था."
1914 में भारत की आज़ादी के लिए दुनियाभर में सहानुभूति जगाने के उद्देश्य से लाला लाजपत राय पहले ब्रिटेन गए और फिर वहां से उन्होंने अमेरिका का रुख़ किया.
पहला विश्व युद्ध शुरू हो जाने के कारण उन्हें 1920 तक अमेरिका में ही रहना पड़ा. जब वो भारत लौटे तो उन्हें कांग्रेस के कलकत्ता सत्र में पार्टी का अध्यक्ष बनाया गया. उन्होंने ही पंजाब नेशनल बैंक और लक्ष्मी इंश्योरेंस कंपनी की स्थापना की.
इसके साथ ही उन्होंने ऑल इंडिया ट्रेड यूनियन कांग्रेस की स्थापना भी की और उसके पहले अध्यक्ष भी बने. सन 1921 में उन्होंने सर्वेंट्स ऑफ़ द पीपुल सोसाइटी की स्थापना की.
1922 में जब महात्मा गांधी ने चौरी चौरा कांड के बाद असहयोग आंदोलन वापस लिया तो लाजपत राय ने इसे पसंद नहीं किया. इस मतभेद के कारण उन्हें कुछ समय के लिए कांग्रेस छोड़नी भी पड़ी.
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