महान चोल मंदिर : चोल राजवंश

राजेंद्र-प्रथम द्वारा बनवाए गए गंगैकोण्डचोलीश्वरम मंदिर का निर्माण सन 1035 में पूर्ण हुआ। इसके 53 मीटर के विमान (गर्भगृह शिखर) के आले के समान कोण और भव्य ऊपरी गोलाइयों में गतिशीलता का दृश्य तंजौर के सीधे और ठोस स्तंभ के विपरीत है
महान चोल मंदिर : चोल राजवंश

पूरे दक्षिण भारत और पड़ोसी द्वीपों तक फैले हुए चोल साम्राज्य के राजाओं द्वारा महान चोल मंदिर का निर्माण कराया गया था। इस स्थल में 11वीं और 12वीं सदी में निर्मित तीन महान मंदिर- तंजौर का बृहदेश्वर मंदिर, गंगैकोण्डचोलीश्वरम का बृहदेश्वर मंदिर और दारासुरम का एरावतेश्वर मंदिर शामिल हैं। राजेंद्र-प्रथम द्वारा बनवाए गए गंगैकोण्डचोलीश्वरम मंदिर का निर्माण सन 1035 में पूर्ण हुआ। इसके 53 मीटर के विमान (गर्भगृह शिखर) के आले के समान कोण और भव्य ऊपरी गोलाइयों में गतिशीलता का दृश्य तंजौर के सीधे और ठोस स्तंभ के विपरीत है। दारासुरम का एरावतेश्वर मंदिर परिसर राजाराजा-द्वितीय द्वारा निर्मित है, जिसमें 24 मीटर का विमान और भगवान शिव की एक पत्थर की मूर्ति विराजमान है। यह मंदिर वास्तुकला, मूर्तिकला, चित्रकला एवं कांस्य कला के क्षेत्र में चोलों की शानदार उपलब्धि का साक्ष्य प्रदान करता है। 

उत्कृष्ट वैश्विक महत्ता


संक्षिप्त संकलन


चोल राजवंश ने 9वीं ईसा पूर्व में तंजौर और इसके आस-पास शानदार साम्राज्य की स्थापना की। उन्होंने शाही उद्यमों के सारे क्षेत्रों में महान उपलब्धियों जैसे कि सैन्य प्रयास, कुशल प्रशासन, सांस्कृतिक सम्मिलन और कला को बढ़ावा देने के साथ साढ़े चार सदियों तक अपने सुख्यात शासन का उपभोग किए। तंजौर का बृहदेश्वर मंदिर, गंगैकोण्ड चोलपुरम का बृहदेश्वर मंदिर और दारासुरम का एरावतेश्वर मंदिर सभी विद्यमान मंदिर हैं। हज़ारों सालों पहले आगम व्याख्यान के आधार पर स्थापित और मंदिर की आराधना की परम्पराएं और अनुष्ठान लोगों की ज़िन्दगी के एक अभिन्न हिस्से की तरह आज तक दैनिक, साप्ताहिक और वार्षिक तौर पर वैसे ही किए जा रहे हैं। 


इन तीनों मंदिरों के परिसर एक अद्भुत समूह बनाते हैं, जो उच्च चोल वास्तुकला और कला के सबसे उच्च स्वरूप के प्रगामी विकास का प्रदर्शन करते हैं और साथ ही चोल इतिहास और तमिल संस्कृति के एक बहुत ही विशिष्ट अवधि का नेतृत्व करते हैं। 


तंजौर का बृहदेश्वर मंदिर चोल वास्तुकला की सबसे महान उपलब्धियों को चिन्हित करता है। दक्षिणा मेरू के रूप में अभिलेखों में प्रचलित, इस मंदिर का शुभारंभ चोल के राजा, राजराजा प्रथम (सन 985-1012) द्वारा संभवतः 19वें शाही वर्ष (सन 1003 -1004) में किया गया था और उन्होंने 25 वें शाही वर्ष (सन 1009-1010) में खुद ही इसका लोकार्पण किया था। अष्टादीपालों को समर्पित तीर्थस्थलों के साथ एक विशाल स्तंभयुक्त प्रकार और गोपुरा (राजराजंतीरुवसल के नाम से प्रचलित) के साथ एक मुख्य प्रवेश द्वार है, जो इस विशाल मंदिर को घेरे हुए हैं। आयातकार आंगन के पहले आधे भाग को गर्भगृह ही घेरे हुए है। विमान ज़मीन से 59.82 मीटर की ऊंचाई का है। यह भव्य ऊंचाई एक उच्च उपपीठ, स्पष्ट ढलाई के साथ आधीस्थान द्वारा टिका हुआ है; ज़मीनी स्तर (प्रस्तर) दो स्तरों में विभाजित है, जिसमें भगवन शिव की मूर्ति भी है। इसके ऊपर 13 कलश आए हुए हैं और यह आठ कोनों वाले एक "शिखर" से घिरा हुआ है। गर्भगृह के चारों तरफ एक विशाल पगडंडी है, जिसमें एक विशाल लिंग स्थापित है। मंदिर की दीवारों को कीमती और उत्कृष्ट चित्रकला से सजाया गया है। गर्भगृह के आसपास द्वितीय भूमि की दीवारों पर, एक सौ आठ करणों में से इक्यासी करण, भरतनाट्य की मुद्रा में तराशे गए हैं। 13वीं सदी के अमन (अम्मान) को समर्पित एक तीर्थस्थान भी है।  


मंदिर के कोटे के साथ, एक खंदक और तालाब से घिरी हुई, शिवगंगा छोटे क़िले की दीवारें हैं, जिसे चोल राजवंश के उत्तराधिकारी 16वीं सदी के तंजौर के नायकों ने बनवाया था। किले की दीवारें मंदिर परिसर का घेराव करते हुए भीतर से मंदिर परिसर की सुरक्षा करती हैं और भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण द्वारा संरक्षित क्षेत्र का हिस्सा बनती हैं।  


पेरम्बलुर जिले में गंगैकोण्ड चोलपुरम के बृहदेश्वर मंदिर की स्थापना राजेंद्र प्रथम (सन 1012-1044) द्वारा भगवान शिव के लिए की गई थी। इस मंदिर में अद्भुत गुणवत्ता वाली मूर्तिकला मौजूद है। भोगासक्ति और सुब्रह्मण्य की कांस्य मूर्ति चोल साहसिकता के प्रतीक हैं। सौरपीठ (सौर वेदिका), आठ देवताओं वाली कमल वेदिका को  शुभ माना जाता है। 


तंजौर का एरावतेश्वर मंदिर चोल राजा राजराजा द्वितीय (1143-1173) द्वारा बनवाया गया था। यह मंदिर आकार  में तंजौर और गंगैकोण्ड चोलपुरम के बृहदेश्वर मंदिर की तुलना में बहुत छोटा है। यह मंदिर अन्य इन दो मंदिरों की अत्यधिक अलंकरण से अलग है। इस मंदिर में बिना पगडंडी वाला एक गर्भगृह और अक्षीय मंडप है। अग्रभाग वाला मंडप जिसे अभिलेखों में राजगंभीरन तिरूमंडपम के नाम से जाना गया है, एक अनोखा मंडप है, जिसे पहियों वाले एक रथ के रूप में संकल्पित किया गया था। मंडप के स्तंभ अच्छी तरह से अलंकृत हैं। यहां वास्तुकला से मूर्तिकला श्रेष्ठ होने के साथ-साथ ही सभी भागों का उत्थान सुन्दर है। इस मंदिर की कुछ मूर्तियां चोल कला की उत्कृष्ट कृतियां हैं। 63 नयनमारों (शैव संतों) के साथ हुई घटनाओं को उजागर करने वाले अंकितक लघु चित्र उल्लेखनीय हैं और इस क्षेत्र में सायवा की गहरी जड़ों को प्रदर्शित करती हैं। मुख्य मंदिर के निर्माण के कुछ समय बाद, देवी के लिए एक अलग मंदिर का निर्माण, दक्षिण भारतीय मंदिर परिसर के एक आवश्यक अंग के रूप में अमान तीर्थस्थान के उद्भव को प्रकट करता है।
मानदंड (i): दक्षिण भारत के तीन चोल मंदिर, द्रविड़ शैली के मंदिरों के शुद्ध रूप की स्थापत्य अवधारणा में एक उत्कृष्ट रचनात्मक उपलब्धि का प्रतिनिधित्व करते हैं।
मानदंड (ii): तंजौर का बृहदेश्वर मंदिर चोल मंदिरों का पहला महान उदाहरण बना, जिसके निर्माण के बाद अन्य दो स्थलों का भी विकास हुआ।
मानदंड (iii): तीन महान चोल मंदिर एक असाधारण और चोल साम्राज्य की वास्तुकला और दक्षिणी भारत में तामिल सभ्यता के विकास का सबसे उत्कृष्ट प्रमाण  हैं।
मानदंड (iv): तंजौर, गंगैकोण्ड चोलपुरम और दारासुरम के महान चोल मंदिर वास्तुकला और चोल विचारधारा के प्रतिनिधित्व के उत्कृष्ट उदाहरण हैं। 


समग्रता


ये मंदिर, चोल काल से लेकर मराठा काल तक द्रविड़ वास्तुकला के विकास का प्रतिनिधित्व करते हैं। ये सभी तीन स्मारक स्थल के अभिलेख के समय से लेकर अब तक संरक्षण की एक अच्छी स्थिति में हैं और कोई भी बड़ा खतरा इन विश्व धरोहर स्मारकों को प्रभावित नहीं करता है। इन स्मारकों का रखरखाव और निगरानी भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण द्वारा किया जाता है। हज़ारों सालों पहले आगम व्याख्यान के आधार पर स्थापित इन मंदिरों की आराधना की परम्पराएं और अनुष्ठान लोगों की ज़िन्दगी के एक अभिन्न हिस्से की तरह आज तक दैनिक, साप्ताहिक और वार्षिक तौर पर जारी हैं। 


प्रामाणिकता


इन तीनो स्थलों को उनकी संकल्पना, सामग्री और कार्यान्वयन के संबंध में प्रामाणिकता की कसौटी पर कसा हुआ माना जाता है। मंदिर अभी भी उपयोग में हैं, और उनके महान पुरातात्विक और ऐतिहासिक मूल्य हैं। ये मंदिर परिसर प्रमुख शाही शहरों का हिस्सा हुआ करते थे, लेकिन आज मुख्य रूप से ग्रामीण संदर्भ में उत्कृष्ट विशेषताओं के रूप में स्थापित हैं। तंजौर के बृहदेश्वर मंदिर के परिसर के भागों को 1987 में विश्व धरोहर संपत्ति घोषित किया गया, जिसमें छह उप-मंदिर शामिल हैं, जिन्हें समय के साथ मंदिर के प्रांगण में जोड़ा गया है। बाद में किए गए परिवर्धन और हस्तक्षेप समरूपता और इसकी समग्र अखंडता को ध्यान में रखते हुए, मुख्य मंदिर परिसर में सन्निहित मूल अवधारणा को सुदृढ़ करते हैं। अर्चना और अनुष्ठान के लिए मंदिर का पारंपरिक उपयोग इसकी प्रामाणिकता में योगदान देता है। हालांकि  2003  की आवधिक विवरण ने कई संरक्षण हस्तक्षेपों जैसे कि संरचनाओं की रासायनिक तौर से सफाई और मंदिर के फर्श का कुल प्रतिस्थापन जैसे बातों की ओर ध्यान खींचा, जो संरचनाओं की प्रामाणिकता पर गहरा असर कर सकते हैं, जिसने संपत्ति के संरक्षण को निर्देशित करने के लिए एक संरक्षण प्रबंधन योजना की आवश्यकता को उजागर किया ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि मंदिर परिसरों की प्रामाणिकता बनी रहे।


इसी प्रकार, गंगैकोण्ड चोलपुरम के बृहदेश्वर मंदिर परिसर में, चंदेसा और अमान नामक उप-मंदिर मूल रूप से राजेंद्र प्रथम और साथ ही सिंहकेनी (सिंह-कुआं) की योजना के अनुसार बनाए गए थे। समय के साथ थेंकैलाशा, गणेश और दुर्गा उप-मंदिरों को जोड़ा गया। संबंधित अगामा व्याख्यान, इन परिवर्धनों की प्रामाणिकता, मौजूदा मंदिरों का नवीनीकरण और पुन:निर्माण का समर्थन करता है।
दारासुरम में, राजपत्र के बाद से पुरातात्विक साक्ष्य संपत्ति की प्रामाणिकता और बढ़ गई है। अकेला एरावतेश्वर मंदिर ही ऐसा मंदिर है, जिसे बिना किसी अतिरिक्त संरचनाओं के साथ एक ही समय पर बनाया गया है, और वह आज तक अपने मूल रूप में है। एरावतेश्वर मंदिर के निर्माण के कुछ समय बाद निर्मित देयवानायकी अमान तीर्थ भी इसके परिसीमा के भीतर अपने मूल रूप में है।


संरक्षण और प्रबंधन आवश्यकताएं 


तीन सांस्कृतिक स्थल, अर्थात तंजौर का बृहदेश्वर मंदिर परिसर, गंगैकोण्ड चोलपुरम का बृहदेश्वर मंदिर परिसर और दारासुरम का एरावतेश्वर मंदिर परिसर क्रमशः 1922, 1946 और 1954 से भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के संरक्षण में हैं। इसके अलावा, सभी को उसके अधिनियमन के समय, वर्ष 1959 से तमिलनाडु हिंदू धार्मिक और धर्मस्व वृति अधिनियम के तहत लाया गया था। इसलिए, इन सांस्कृतिक संपत्तियों के प्रबंधन को दो अलग-अलग भागों में विभाजित किया जा सकता है: (1) भौतिक संरचना, वास्तुकला और स्थल की विशेषताओं, पर्यावरण और परिवेश, चित्रकला, मूर्तिकला और अन्य अवशेषों को आवृत करते हुए संपत्तियों का संरक्षण, मरम्मत और रखरखाव तथा (2) कर्मचारी ढांचा और पदानुक्रम, लेखा और बहीखाता, लेख पत्र और नियमों को मंदिर प्रशासन देखता है।
भाग (1) के संबंध में प्रबंधन प्राधिकरण पूरी तरह से भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के पास है, जबकि भाग (2) में शामिल पहलुओं की देखभाल पूरी तरह से तमिलनाडु सरकार के हिंदू धार्मिक और धर्मस्व वृति विभाग द्वारा किया जाता है। इसलिए, यह स्पष्ट है कि संपत्ति का प्रबंधन, इन दो संस्थाओं, एक केंद्रीय और दूसरी राजकीय संस्था द्वारा संयुक्त रूप से किया जाता है।


इन दो संस्थाओं की कार्यप्रणाली में उनकी प्रबंधन योजनाओं को स्वतंत्र रूप से तैयार करना और समय-समय पर उनकी समीक्षा करना शामिल है। जब आवश्यक होता है, तो संयुक्त विचार-विमर्श किया जाता है और किसी भी स्पष्ट विरोधाभास या संघर्ष के मुद्दों पर उचित विचार किया जाता है और उसे हल किया जाता है। तंजौर के बृहदेश्वर मंदिर और दारासुरम के एरावतेश्वर मंदिर के मामले में, ये संस्थाएं किसी भी ऐसे मुद्दे को अंतिम रूप देने से पहले राजभवन देवस्थानम के वंशानुगत ट्रस्टी से परामर्श करती हैं, जिसमें ट्रस्टी के विचार लेना आवश्यक हो।


हालांकि, विस्तारित संपत्ति के नामांकन के बाद से, भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग, हिंदू धार्मिक और धर्मार्थ प्रबंधन तथा तमिलनाडु सरकार  एक संपत्ति प्रबंधन योजना का मसौदा तैयार करने पर सैद्धांतिक रूप से सहमत हुए हैं, जिसमें न केवल दोनों पक्षों की विशिष्ट आवश्यकताओं का ध्यान रखा जाएगा बल्कि (1) उनके उत्कृष्ट सार्वभौमिक मूल्य को बढ़ावा देते हुए तीन सांस्कृतिक गुणों की रक्षा और संवर्धन; (2) वैदिक और अगमिक परंपराएँ और लोगों के जीवन में उनका महत्व; (3) कला (मूर्तिकला, चित्रकला, कांस्य कला, नृत्य, संगीत और साहित्य) जोकि पारंपरिक संस्कृति के अविभाज्य घटक हैं; तथा (4) वास्तु और शिल्प शास्त्रों के प्राचीन विज्ञान, मंदिरों और धार्मिक संरचनाओं के निर्माण और मूर्तिकला और चित्रकला को भी शामिल किया जाएगा।


संपत्ति को विश्व धरोहर संपत्ति घोषित करने के बाद से, स्मारकों को अच्छी दशा में संरक्षित रखा गया है और स्मारक को किसी भी प्रकार से कोई हानि नहीं होती है। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण द्वारा इन स्मारकों का रखरखाव और समय-समय पर इनकी जांच की जाती है, जिससे ये स्मारक, पर्यटकों के लिए आकर्षण का केंद्र बने रहते हैं। हालांकि, आगामी कार्यों के दिशानिर्देश हेतु एक पर्यटन प्रबंधन और विवेचना योजना और संरक्षण कार्य योजना आवश्यक है, जो संरक्षण और विवेचना के प्रयास के लिए प्राथमिकताएं निर्धारित कर सके।


पर्यटकों की सुविधा के लिए जगह-जगह पानी, शौचालय आदि जैसी बुनियादी सुविधाएं प्रदान की गई हैं। दीर्घकालिक योजनाओं में भूनिर्माण और पर्यटकों की सुविधाओं में सुधार जैसी योजनाएं भी शामिल हैं। ये मंदिर पिछले 800-1000 वर्षों से आस्था के केंद्र रहे हैं और आगे भी रहेंगे। आगंतुकों की संख्या और इसके प्रभावों की निगरानी आवश्यक है, जिससे यह सुनिश्चित किया जा सके कि इस अद्भुत सार्वभौमिक मूल्य को कोई खतरा नहीं होगा।

The mainstream media establishment doesn’t want us to survive, but you can help us continue running the show by making a voluntary contribution. Please pay an amount you are comfortable with; an amount you believe is the fair price for the content you have consumed to date.

happy to Help 9920654232@upi 

Buy Website Traffic
logo
The Public Press Journal
publicpressjournal.com